प्राकृतिक आपदा से क्या अभिप्राय है? किसी एक प्राकृतिक आपदा पर विस्तार से प्रकाश डालिए।
या
आपदा से आप क्या समझते हैं? किन्हीं दो आपदाओं का वर्णन कीजिए।
या
प्राकृतिक आपदा किसे कहते हैं? किन्हीं चार प्राकृतिक आपदाओं के विषय में लिखिए।
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प्राकृतिक आपदा
प्राकृतिक कारणों से या प्रकृति (Nature) के परिवर्तनों के कारण उत्पन्न होने वाले संकट को प्राकृतिक आपदा कहा जाता है; जैसे-भूकम्प, ज्वालामुखी विस्फोट, बाढ़, सूखा, समुद्री लहरें, भूस्खलन, बादल का फटना, चक्रवाती तूफान आदि। दूसरे शब्दों में, प्राकृतिक रूप से घटित वे समस्त घटनाएँ जो प्रलयंकारी रूप ग्रहण कर सामान्य मानव सहित सम्पूर्ण मानवजगत् के लिए विनाश का दृश्य उपस्थित कर देती हैं, प्राकृतिक आपदाएँ कहलाती हैं। इन आपदाओं का सीधा सम्बन्ध प्रकृति या पर्यावरण से होता है।
भूस्खलन
भूमि के एक सम्पूर्ण भाग अथवा उसके विखण्डित एवं विच्छेदित खण्डों के रूप में खिसक जाने अथवा गिर जाने को. भूस्खलन कहते हैं। भूस्खलन संसार में बड़ी प्राकृतिक आपदाओं में से एक है। भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में, जिसमें हिमालय पर्वतीय क्षेत्र प्रमुख हैं, भूस्खलन एक व्यापक प्राकृतिक आपदा है, जिससे बारह महीने जान और माल का नुकसान होता है। यह भूस्खलन परिवहन तथा संचार-व्यवस्था को भी बाधित करता है तथा रिहायशी बस्तियों को भी नष्ट करता है। भू-क्षरण (Land erosion) तथा भूस्खलन (Land slide) अलग-अलग प्राकृतिक घटनाएँ हैं, जिनको भूलवश एक ही अर्थ में प्रयुक्त कर लिया जाता है। भू-क्षरण में धरातल की मिट्टी किसी भी प्रक्रम के द्वारा अपने स्थान से अन्यत्र बह जाती है; जब कि भूस्खलन में भूमि के बड़े-बड़े टुकड़े टूटकर सड़कों व बस्तियों को मलबे के नीचे दबा देते हैं, कृषि योग्य भूमि को नष्ट कर देते हैं तथा नदियों के प्रवाह को अवरुद्ध कर देते हैं।
कारण
भूस्खलन का प्रमुख कारण पर्वतीय ढालों की चट्टानों का कमजोर होना है। चट्टानों के कमजोर होने पर उनमें घुसा हुआ पानी चट्टानों की बँधी हुई मिट्टी को ढीला कर देता है। यही ढीली हुई मिट्टी ढाल की ओर भारी ” दबाव डालती है। फलतः नीचे की सूखी चट्टानें ऊपर के भारी और गीले मलबे एवं चट्टानों का भार नहीं सँभाल पातीं, इसलिए वे नीचे की ओर खिसक जाती हैं और भूस्खलन हो जाता है। पहाड़ी ढालों और चट्टानों के कमजोर पड़ने के प्राकृतिक और मानवीय दोनों ही कारण हो सकते हैं। भूस्खलन की उत्पत्ति या कारणों को निम्नलिखित रूप में निर्दिष्ट किया जा सकता है
1.भूस्खलन भूकम्पों या अचानक शैलों के खिसकने के कारण होते हैं।
2.खुदाई या नदी-अपरदन के परिणामस्वरूप ढाल के आधार की ओर भी तेज भूस्खलन हो जाते हैं।
3.भारी वर्षा या हिमपात के दौरान पर्वतों की तेज ढालों पर चट्टानों का बहुत बड़ा भाग जल तत्त्व की अधिकता एवं आधार के कटाव के कारण अपनी गुरुत्वीय स्थिति से असन्तुलित होकर अचानक तेजी के साथ विखण्डित होकर गिर जाता है। अत: चट्टानों पर दबाव की वृद्धि भूस्खलन का मुख्य कारण. होती है।
4.भूस्खलन का कारण त्वरित भूकम्प, बाढ़, ज्वालामुखी विस्फोट, अनियमित वन कटाई आदि भी होता है।5.सड़क एवं भवन बनाने के लिए प्राकृतिक ढलानों को सपाट स्थिति में परिवर्तित किया जाता है। इस प्रकार के परिवर्तनों के परिणामस्वरूप भी पहाड़ी ढालों पर भूस्खलन होने लगते हैं। वास्तव में
मुलायम वे कमजोर पारगम्य चट्टानों में रिसकर जमा हुए हिम या जल का बोझ ही पर्वतीय ढालों पर चट्टानों के टूटने और खिसकने का प्रमुख कारण है।
निवारण
भूस्खलन एक प्राकृतिक आपदा है फिर भी मानवे-क्रियाएँ इसके लिए उत्तरदायी हैं। इसके न्यूनीकरण की मुख्य युक्तियाँ निम्नलिखित हैं
1. भूमि उपयोग–वनस्पतिविहीन ढलानों पर भूस्खलन का खतरा बना रहता है। अत: ऐसे स्थानों पर स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार वनस्पति उगाई जानी चाहिए। भू-वैज्ञानिक विशेषज्ञों के द्वारा सुझाये गये उपायों को अपनाकर, भूमि के उपयोग तथा स्थल की जाँच से ढलान को स्थिर बनाने वाली विधियों को अपनाकर भूस्खलन से होने वाली हानि को 95% से अधिक कम किया जा सकता है। जल के प्राकृतिक प्रवाह में कभी भी बाधक नहीं बनना चाहिए।
2. प्रतिधारण दीवारें भूस्खलन को सीमित करने तथा मार्गों को क्षतिग्रस्त होने से बचाने के लिए सड़कों के किनारों पर प्रतिधारण दीवारें तीव्र ढाल पर बनायी जानी चाहिए जिससे ऊँचे पर्वत से पत्थर सड़क पर गिर न जाएँ। रेल लाइनों के लिए प्रयोग की जाने वाली सुरंगों के पश्चात् काफी दूर तक प्रतिधारण दीवारों का निर्माण किया जाना चाहिए।
3. स्थानीय जल-प्रवाह नियन्त्रण-वर्षा के जल तथा चश्मों से जल-प्रवाह के कारण घटित भूस्खलनों को नियन्त्रित करने के लिए स्थलीय जल-प्रवाह को नियन्त्रित करना चाहिए, जिससे भूस्खलन हेतु पानी भूमि में प्रवेश न कर सके।
4. पर्वतीय ढलानों को स्थिर करना–पर्वतीय ढलानों को स्थिर करके भी भूस्खलन से होने वाली क्षति को न्यूनतम किया जा सकता है। ढलानों को घास उगाकर, पौधों का रोपण करके एवं वृक्ष लगाकर स्थिर एवं मजबूत किया जा सकता है। अधिक तीव्र ढाल वाले स्थानों पर जब तक पर्याप्त वानस्पतिक आवरण विकसित न हो जाए, तब तक मिट्टी को अस्थायी रूप से रोकने के लिए टाट, नारियल जटा आदि का उपयोग किया जा सकता है।
5. भवनों के समीप अवरोधक बनाना–खड़ी या तीव्र ढाल पर बने भवनों के निकट ऐसे अवरोधकों का निर्माण करना चाहिए, जो छोटे-छोटे भूस्खलनों को रोकने में समर्थ हों; अर्थात् इनका निर्माण ऐसा होना चाहिए, जिससे ये भूस्खलन के समय गिरने वाले मलबे की गति के सामने टिक सकें। अवरोधकों के निर्माण के समय पानी की निकासी की पूर्ण व्यवस्था का भी ध्यान रखना चाहिए।
6. अभियान्त्रिकी संरचना-भूस्खलन के प्रभाव को कम करने के लिए मजबूत नींव वाले भवंने तथा अन्य अभियान्त्रिकी संरचनाओं को प्रमुखता दी जानी चाहिए। भूमिगत संयन्त्रों को तकनीकी रूप से ऐसे निर्मित किया जाना चाहिए कि वे भूस्खलन से क्षतिग्रस्त न हों। इनके समीप भी प्रतिधारण दीवारें बनायी जानी चाहिए। इनके निर्माण के समय भी पानी के निकास का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए।
7. वनस्पति आवरण में वृद्धि–वनस्पति आवरण में वृद्धि भूस्खलन को नियन्त्रित करने का सर्वाधिक प्रभावशाली, सस्ता तथा उपयोगी रास्ता है। यह मिट्टी की ऊपरी सतह को निचली सतह से बाँधे रखता है तथा स्थलीय जल-प्रवाह को धीमा कर मृदा के अपरदन को रोकता है।
8. भूस्खलन सम्भावित एवं प्रभावित क्षेत्र की पहचान कर उन्हें मानचित्रित किया जाना चाहिए। इसका प्रभावित वर्ग में प्रचार-प्रसार भी आवश्यक है, जिससे वह सचेत हो सके। भारत में भूस्खलन के प्रमुख क्षेत्र हैं-
विन्ध्याचल। उपर्युक्त निवारक-प्रबन्धक उपायों को अपनाकर भूस्खलन रूपी आपदा से होने वाली हानि को भी न्यूनतम किया जा सकेगा।