ससंदर्भ भाव स्पष्ट कीजिए :
वे मुस्काते फूल, नहीं-
जिनको आता है मुरझाना,
वे तारों के दीप, नहीं-
जिनको भाता है बुझ जाना।
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प्रसंग : प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘अधिकार’ नामक आधुनिक कविता से लिया गया है, जिसकी रचयिता महादेवी वर्मा हैं।
संदर्भ : महादेवी जी के इस सरस गीत में वेदना की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। वे अपने अज्ञात प्रियतम की विरह की पीड़ा पर अपना अधिकार बनाये रखना चाहती है। वे सर्वसुख सम्पन्न लोक की कामना नहीं करतीं। वे सांसारिक जीवन में ही रहने की कामना करती हैं।
व्याख्या : महादेवी वर्मा अपने प्रियतम (परमात्मा) को संबोधित करती हुई कहती हैं कि मैंने सुना है कि तुम्हारे लोक (स्वर्ग) में फूल सदैव खिले रहते हैं उन्होंने कभी मुरझाना नहीं सीखा है, किन्तु मैं तो वे फूल चाहती हूँ जिन्होंने मुरझाना भी सीखा है। पीडा का अपना आनंद है। आपके स्वर्ग लोक में तारों के दीपक हैं जिनको बुझ जाना कभी अच्छा नहीं लगता है, अर्थात् वे सदैव जलते रहते हैं। यादि तुम मुझे अपना लोक प्रदान करो तो मुझे ये दीपक नहीं चाहिए। मुझे तो संघर्षशील मिट्टी के दीपक अच्छे लगते है जो दुःख और सुख से युक्त इस संसार को प्रकाशित करते हैं। मुझे तो दुःखों का साथ ही अच्छा लगता है।
विशेष : मानव जीवन में उत्पन्न वेदना की अनुभूति को प्रतिपादित किया है।
भाषा – शुद्ध हिन्दी खड़ी बोली है।
शैली – भावात्मक गीति शैली है।
रस-छन्द – मुक्तक छंद, गुण-माधुर्य, संपूर्ण पद में पद मैत्री है।